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interpretation of three rules primary rules golden rules and mischief rules

Posted on September 17, 2024September 17, 2024 By soni.vidya22@gmail.com No Comments on interpretation of three rules primary rules golden rules and mischief rules

निर्वाचन के तीन नियम शाब्दिक के और गोल्डन रूल और दोष परिहार

निर्वाचन (election) के तीन महत्वपूर्ण नियमों में निम्नलिखित शामिल होते हैं:

  1. शाब्दिक नियम (Literal Rule):
    • इस नियम के तहत, कानून या नियम का अर्थ स्पष्ट और सामान्य भाषा में लिया जाता है। शब्दों को उनके साधारण, स्पष्ट और साधारण अर्थ में समझा जाता है, और इस प्रकार विधि का वही अर्थ माना जाता है जो उसमें लिखा गया है।

शाब्दिक निर्वाचन पर निर्णित मामले 

केस ब्राउन वर्सिज स्टाइलो के बाद में वसीयत्ती एक्ट 1897 क्षेत्र 9 में अपेक्षा किया था कि करता वसीयत पर दो साथियों के सम्मुख हस्ताक्षर करेगा कोर्ट इस उपबंध को पूरा करने के लिए यह आवश्यक माना कि दो साक्षी का वसीयत करता के हस्ताक्षर के समय शारीरिक रूप से उपस्थित होना आवश्यक है और इसमें किसी प्रकार की कमी वसीयत को अवैध बना देती है

केस R वर्सिज बेलानी के बाद में जहां दाडिक विधि के अंतर्गत कार्यवाही के लिए आवश्यक बताया गया था कि अपराध घटित होने के निश्चित समय के अंदर अभियोजन प्रारंभ हो जाना चाहिए यदि मामले का आयोजन निर्धारित समय सीमा के प्रारंभ नहीं होता है तो चाहे विलंब एक दिन का ही क्यों ना हो ऐसा विलंब अभियुक्त के निवेदन पर ही क्यों किया गया मामला विचारों योग्य नहीं होगा

केस संकलचंद वर्सेस भारत संघ और कैसे एसपी गुप्ता वर्सेस भारत संघ इन दोनों केस में प्रश्न या उठा था की आर्टिकल 222 के अंतर्गत स्थानांतरण के समय प्रभावित न्यायाधीश की सहमति ली जाए?

सुप्रीम कोर्ट ने इन दोनों मामलों में आर्टिकल 222 का अर्थन्वयन शाब्दिक निर्वाचन के आधार पर यह करके कहा कि स्थानांतरित जजों की सहमति को आवश्यक मानने से इनकार कर दिया क्योंकि आर्टिकल 222 को संबंधित करता है की राष्ट्रपति भारत के मुख्य न्यायाधीश के परामर्श करने के बाद किसी न्यायाधीश का एक हाई कोर्ट से दूसरे हाईकोर्ट का स्थानांतरण कर सकेगा

शाब्दिक निर्वाचन के तीन सहायक अप नियम भी है

पहले सजातीयता का नियम

दूसरा साह चरने ज्ञायते नियम

तीसरा सकारण लोप का नियम

  1. गोल्डन रूल (Golden Rule):
    • इस नियम का उपयोग तब किया जाता है जब शाब्दिक नियम से कानून का अर्थ स्पष्ट न हो या उसमें कोई विरोधाभास उत्पन्न हो जाए। इस स्थिति में, कानून की व्याख्या करते समय उसे इस प्रकार मोड़ा जाता है कि वह असंगत या अनुचित परिणाम से बच सके। यह विधि को स्पष्ट और न्यायपूर्ण अर्थ प्रदान करने के लिए किया जाता है।
  2. दोष परिहार नियम  या हेडन का नियम या (Mischief Rule): bhi kahte hai। जस्टिस काक ने इस नियम का प्रतिपादन 16 में शताब्दी में 1584 में हेड्स के मामले में प्रतिपादित किया था इसे हेडन का सिद्धांत भी कहते हैं
    • इस नियम के तहत, कानून की व्याख्या करते समय यह देखा जाता है कि विधि बनाने का उद्देश्य क्या था और उस समय किस प्रकार की समस्याओं या दोषों (mischief) को दूर करने के लिए विधि बनाई गई थी। इस नियम का मुख्य उद्देश्य उस समस्या को समझना और कानून का सही और न्यायपूर्ण अर्थ निकालना है ताकि विधि का सही प्रभाव हो सके।
    • केस ….
    • मंगू सिंह vs निर्वाचन अधिकरन

केस आलमगीर vs Bihar राज्य इस बात में अपिलार्थी पर आईपीसी सेक्शन 498 अंतर्गत आरोप लगाया गया था वह स्त्री के निरुद्ध करने का दोषी है। S,c ne सुप्रीम कोर्ट ने क्षेत्र 498 में ले जाना। बहकना।छुपाना ।या निरुद्ध करने का उल्लेख किया गया है क्योंकि इस मामले में प्रारंभ के तीन विषय लागू नहीं होते प्रश्न यह उठता है कि अभियुक्त के द्वारा महिला को निरुद्ध किया गया है अथवा नहीं यद्यपि महिला अखिल आरती के साथ स्वयं की इच्छा से रह रही थी फिर भी सुप्रीम कोर्ट ने निर्धारित किया कि इस उपबंध को पारित करने का उद्देश्य पति को पत्नी से वंचित न करने की दृष्टि से बचाना अथवा पति के अधिकारों की रक्षा करना है भले ही पत्नी की इच्छा हो अपना आरती इस एक्ट के तहत क्षेत्र 498 का दोषी है न्यायालय ने इस दोस्त एवं उपचार की ओर ध्यान दिया जिस दोस्त को यह धारा दूर करना चाहती है और उसके लिए उपबंध या उपचार उपलब्ध कराना चाहती थी

केस रंजीत दी कुरैशी वर्सिज महाराष्ट्र राज्य इस एक्ट में आईपीसी 292 के तहत अभियुक्त अश्लील किताब रखने और बेचने का दोषी पाया गया था अभियुक्त ने तर्क दिया था की यह साबित करना चाहिए था कि मेरा मस्तिष्क मेंस रिया से युक्त था या पुस्तक की विषय वस्तु का ज्ञान पुस्तक अश्लील था यह साबित करना चाहिए दूसरा यह तर्क दिया की पुस्तक की दुकानों में बहुत सारी पुस्तक होती हैं और दुकानदार के लिए संभव नहीं  होता है कि वह सब पुस्तकों में क्या लिखा है जाने

सुप्रीम कोर्ट ने उपरोक्त तर्कों को अस्मत व्यक्त किया और कहां की आईपीसी सेक्शन 292 स्पष्ट है कि जिसमें अश्लील साहित्य रखना या बेचना दोषपूर्ण है इस धारा का उद्देश्य असलियत की दृष्टि से बचाना है इसलिए अभ्यर्थी का तर्क निरर्थक है।

केस पवन कुमार बंसल vs hariyana राज्य

इस बाद में मृतका और अपलर आरती का विवाह 1985 में हुआ था विवाह के कुछ दिन बाद स्कूटर फ्रिज की मांग की गई थी मांग पूरी न होने पर मृतका के साथ लांछन लगाया गया उसके साथ दुर्व्यवहार किया गया था मानसिक यात्रा दी गई थी और बद्दी बद्दी गलियों से भी नवाजा गया 1987 में मृत्यु का मां की मृत्यु पर शोक व्यक्त करने में मेरी बहन के यहां आई थी और उसके यहां कुछ दिन रुकी उसने पति ने वहां भी झगड़ा किया घर छोड़ते समय मृत्यु का ने दर्द भरी आवाज में कहा था कि अब भविष्य में उसका मुख देख पाना कठिन होगा दूसरे दिन मृतिका ने आत्महत्या कर ले इस बात में प्रश्न यह उठा की आईपीसी सेक्शन 304 बी और दहेज प्रतिषेध अधिनियम 1961 sec ३,१४ और इंडियन एविडेंस एक्ट क्षेत्र 11 3 के तहत दहेज मृत्यु मान जाए अथवा नहीं जस्टिस कप मिश्रा ने निर्णय देने से पहले दहेज मृत्यु के संदर्भ में अब तक के संशोधनों के इतिहास पर विचार करते हुए कहा कि जिस तरह दहेज प्रतिषेध एक्ट द्वारा अपेक्षित दहेज देने को लेने की बुराई को रोकने की आवश्यकता के कारण दहेज एक्ट। आईपीसी एक्ट और सच एक्ट में कठोर उपदंड बनाए गए हैं जस्टिस मिश्रा ने हेड्स के बाद में प्रतिपादित सिद्धांत जिसको बंगाल इम्यूनिटी कॉरपोरेशन वर्सेस बिहार राज्य सुप्रीम कोर्ट में दिए गए निर्णय को ध्यान में रखते हुए प्रतिपादित सिद्धांत प्रश्नों की पूर्ति करते हुए कहा उस arthanvyn को अपनाना चाहिए रजिस्ट्री को दोस्त को दबावे और उपचार को अग्रसर करें उन्होंने कहा कि इन नवीनतम समृद्धियों का उद्देश्य है कि विवाहित स्त्रियों के साथ अनुमन्वित करने वाले अपराधी को दंड से बचने ना पावे । सुप्रीम कोर्ट ने आधारित किया की मृत्यु का द्वारा की गई आत्महत्या को दहेज मृत्यु के अंतर्गत सम्मिलित माना और अभियुक्त को दंडित किया

ये तीनों नियम विभिन्न स्थितियों में कानून की व्याख्या के लिए उपयोग किए जाते हैं ताकि न्यायिक प्रक्रियाओं में उचित और न्यायपूर्ण निर्णय दिए जा सकें।

निष्कर्ष,,, सुप्रीम कोर्ट ने सुपरिंटेंडेंट एंड लीगल रेवरेंस का लीगल अफेयर्स वेस्ट बंगाल वर्सिज कारपोरेशन ऑफ़ कोलकाता के बाद में स्पष्ट किया है कि निर्वाचन के नियम विधि के नियम नहीं है और ना ही निर्वाचन के नियम एक्ट के अंतर्गत अधिनियमित नियम की तरह लागू किए जाते हैं निर्वाचन के नियम केवल दिशा निर्देश देते हैं और जो नियम उद्देश्य को पूरा करने में उपयोगी नहीं होता है वह कोर्ट द्वारा अमन किया जा सकते हैं और उनके स्थान पर नए नियम उत्पन्न किया जा सकते हैं निर्वाचन के नियम सेवक हैं मालिक नहीं न्यायाधीशों का कार्य सविधि की  भाषा और आत्मा में सामंजस्य स्थापित करते हुए उद्देश्य से पूर्ण निर्वाचन को स्थापित करते हुए सम्यक एवं सुसंगत निर्वाचन के नियमों को खोज करता है

दूसरे शब्दों में संविधियों के निर्वाचन में कोर्ट की भूमिका संसद के आशय का पता लगाना है । सांसद जो कहना चाहती थी की अपेक्षा जो कहा है उसे प्रभावी बनाना साथ ही परिवर्तित परिस्थितियों में शब्दों के सार्थक एवं अर्थपूर्ण व्याख्या करना आदि है।

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