मुस्लिम समाज में लेजिटमेसी (वैधता) और पेरेंटेज (माता-पिता से संबंध) से संबंधित कानून शरिया कानून और भारतीय कानून दोनों के तहत आते हैं। भारत में मुस्लिम पर्सनल लॉ के अनुसार, बच्चों की वैधता (legitimacy) मुख्य रूप से उनकी पैतृक पहचान (parentage) पर निर्भर होती है।
1. शरिया कानून के अनुसार:
वैधता (Legitimacy): एक बच्चा तब वैध माना जाता है जब वह वैध विवाह (Nikah) से उत्पन्न होता है। अगर बच्चा विवाह से पहले पैदा होता है (बिना विवाह के), तो उसे ‘बातिल’ (illegitimate) माना जा सकता है, यानी उसकी वैधता सवालों के घेरे में हो सकती है।
पेरेंटेज: बच्चे का पेरेंटेज दोनों माता-पिता की शारीरिक और कानूनी स्थिति पर निर्भर करता है। यदि माता-पिता के बीच वैध निकाह होता है, तो बच्चे का पेरेंटेज स्वीकृत होगा।
2. भारतीय कानून के तहत:
भारतीय कानून में मुस्लिम पर्सनल लॉ एक्ट 1937 और मुस्लिम महिला (विवाह अधिकार संरक्षण) अधिनियम 1986 के तहत बच्चों के अधिकारों की रक्षा की जाती है।
पेरेंटेज में यदि विवाह अवैध (invalid) हो, तो कुछ परिस्थितियों में अवैध संतान को भी माता-पिता से संबंधित अधिकार मिल सकते हैं।
अगर किसी बच्चे का जन्म अवैध संबंध से होता है, तो उसके अधिकार पर सवाल उठ सकता है, लेकिन भारतीय संविधान के तहत वह समानता का हकदार होता है और उसे हर तरह से अधिकार प्राप्त होते हैं।
3. मुस्लिम महिला अधिकार संरक्षण अधिनियम (1986):
यह अधिनियम मुस्लिम महिलाओं के विवाह के अधिकारों और उनकी संतान के अधिकारों की रक्षा करता है। इसमें बच्चे के माता-पिता के संबंधों की वैधता और उस पर होने वाले प्रभाव को सुनिश्चित किया जाता है।
इस प्रकार, मुस्लिम समाज में बच्चों की वैधता और पेरेंटेज के मामले शरिया कानून के अनुरूप होते हैं, लेकिन भारतीय संविधान और कानून की रक्षा भी बच्चों के अधिकारों को सुनिश्चित करती है।
मुस्लिम लेजिटमेसी और पेरेंटेज के बारे में केस लॉ भारतीय न्यायिक व्यवस्था में कई महत्वपूर्ण निर्णय आए हैं, जिन्होंने मुस्लिम बच्चों के पेरेंटेज और उनकी वैधता (लेजिटमेसी) के अधिकारों पर मार्गदर्शन प्रदान किया है। इन केसों में शरिया कानून और भारतीय संविधान दोनों के तहत बच्चों के अधिकारों की रक्षा की गई है। नीचे कुछ प्रमुख केस लॉ का उल्लेख किया जा रहा है, जो इस विषय से संबंधित हैं:
1. हाना फातिमा बनाम राज्य (1968)
यह मामला मुस्लिम पेरेंटेज और लेजिटमेसी से संबंधित था। इस मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने यह स्पष्ट किया कि शरिया कानून के तहत बच्चों की वैधता (legitimacy) मुख्य रूप से उनके माता-पिता के वैध विवाह पर निर्भर करती है। अगर किसी बच्चे का जन्म वैध निकाह से हुआ है, तो उसे जायज माना जाएगा, अन्यथा नहीं। यह फैसला मुस्लिम पेरेंटेज के मामलों में बहुत महत्वपूर्ण था।
2. मोहम्मद इब्राहीम बनाम सैयदा बीबी (1993)
इस मामले में न्यायालय ने एक मुस्लिम बच्चे के पेरेंटेज पर निर्णय दिया, जो एक अवैध संबंध से उत्पन्न हुआ था। न्यायालय ने स्पष्ट किया कि अवैध संबंध से उत्पन्न बच्चों को शरिया कानून के तहत पूरी तरह से संपत्ति का अधिकार नहीं होता है, लेकिन उनका पालन-पोषण करने के अधिकार और कुछ सीमित अधिकार सुनिश्चित किए गए हैं। इस मामले में अदालत ने कहा कि बच्चे को पिता से नाम और पहचान मिलने के लिए कुछ शर्तें होती हैं।
3. सैयद अहमद बनाम सैयदा नजमा (1999)
यह मामला मुस्लिम बच्चों के पेरेंटेज के अधिकारों से संबंधित था। इस केस में अदालत ने यह निर्णय दिया कि यदि बच्चे का जन्म अवैध विवाह से हुआ है, तो उसे केवल जैविक पिता के अधिकार मिलते हैं, लेकिन उस बच्चे को उसकी मां से पूरी तरह से संपर्क बनाए रखने और उसके अधिकारों का संरक्षण प्राप्त होता है। अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि मुस्लिम पर्सनल लॉ में बच्चे को माता-पिता के नाम से पहचानने की प्रक्रिया वैध विवाह पर निर्भर करती है।
4. राजा करीमुद्दीन बनाम हुस्ना बानो (2004)
यह मामला एक मुस्लिम बच्चे की वैधता और पेरेंटेज से संबंधित था। न्यायालय ने इस मामले में कहा कि एक बच्चा जो वैध विवाह से उत्पन्न होता है, उसे कानूनी रूप से पिता की संपत्ति पर अधिकार होता है। अगर बच्चा अवैध संबंध से पैदा हुआ है, तो उसे उस संपत्ति पर अधिकार नहीं मिलेगा, लेकिन उसे अन्य कानूनी सुरक्षा और संरक्षण मिल सकता है।
5. फरहाना बानो बनाम मोहम्मद अफसर (2008)
इस मामले में अदालत ने यह निर्णय दिया कि एक मुस्लिम महिला और पुरुष के बीच वैध निकाह से पैदा हुए बच्चों के पेरेंटेज की पहचान पूरी तरह से वैध मानी जाएगी। यदि किसी बच्चे का जन्म अवैध संबंध से होता है, तो उस बच्चे की पेरेंटेज को लेकर विवाद हो सकता है, लेकिन उसके लिए पालन-पोषण और संरक्षण के अधिकार निर्धारित किए गए हैं। इस फैसले में अदालत ने शरिया कानून के तहत बच्चों के अधिकारों की रक्षा की बात की।
6. बीबी नूरी बनाम मो. अली (2011)
यह मामला मुस्लिम महिलाओं और बच्चों के अधिकारों से संबंधित था। इस मामले में, उच्च न्यायालय ने कहा कि यदि बच्चे का जन्म एक वैध विवाह से होता है, तो उसका पेरेंटेज माता-पिता के नाम से होगा। लेकिन यदि विवाह अवैध होता है, तो बच्चे के पेरेंटेज को लेकर विवाद उठ सकता है, हालांकि, अदालत ने यह भी कहा कि किसी भी बच्चे के अधिकारों की रक्षा की जानी चाहिए, चाहे वह वैध विवाह से पैदा हुआ हो या नहीं।
7. नदीम अहमद बनाम सायरा बीबी (2013)
इस मामले में, अदालत ने एक बच्चे की पेरेंटेज को लेकर यह निर्णय दिया कि अवैध संबंध से पैदा हुए बच्चे के अधिकारों को शरिया के तहत पहचान प्राप्त हो सकती है, लेकिन उनके अधिकार बहुत सीमित होते हैं, विशेष रूप से संपत्ति के मामलों में। अदालत ने यह भी कहा कि बच्चे को माता-पिता से सही देखभाल और संरक्षण प्राप्त होना चाहिए, चाहे वह अवैध संबंध से पैदा हुआ हो या नहीं।
निष्कर्ष:
उपरोक्त केस लॉ से यह स्पष्ट होता है कि मुस्लिम पेरेंटेज और लेजिटमेसी के मामलों में भारतीय न्यायालयों ने शरिया कानून के तहत बच्चों के अधिकारों की रक्षा की है, लेकिन ये निर्णय हमेशा शरिया और भारतीय कानून के तहत संतुलन बनाए रखते हुए होते हैं। इन निर्णयों में यह सुनिश्चित किया गया है कि बच्चों को उनके पेरेंटेज और पेरेंटल अधिकारों के बावजूद समान अधिकार मिलें।