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प्रत्यायोजित विधान क्या है

Posted on September 17, 2024September 17, 2024 By soni.vidya22@gmail.com No Comments on प्रत्यायोजित विधान क्या है

प्रत्यायोजित विधान (Delegated Legislation) वह कानून या नियम होता है जिसे किसी विधायिका द्वारा बनाई गई मुख्य कानून (मूल विधान) के अंतर्गत अधिकारित किया गया हो। इसमें विधायिका अपने कुछ अधिकार या जिम्मेदारियों को कार्यपालिका या किसी अन्य प्राधिकरण को सौंपती है ताकि वे उन कानूनों के तहत आवश्यक नियम, उपनियम, या आदेश बना सकें।

प्रत्यायोजित विधान का उद्देश्य यह होता है कि मुख्य कानून की रूपरेखा को तय करने के बाद, कार्यान्वयन से जुड़ी हुई विस्तृत बातें या प्रक्रियाएँ विशेषज्ञों या प्रशासनिक अधिकारियों द्वारा तय की जा सकें, ताकि लचीलापन और प्रासंगिकता बनी रहे।

प्रत्यायोजित विधान कैसे किया जाता है

विधायिका अपने विदाई शक्ति का प्रत्यायोजन एक पैरंट एक्ट पारित करके करता है यह पैरेंट एक्ट अत्यंत ही संक्षिप्त अधिनियम होता है सामान्यत इसका अंतिम खंड deligate प्रोविजन होता है। इसके द्वारा कार्यपालिका को विदाई शक्ति का प्रत्यायोजन किया जाता है ऐसे में प्रत्यायोजित शक्ति का प्रयोग करके ही कार्यपालिका नियम बनाती है इस प्रकार डेलीगेट लेजिसलेशन प्रणाली में एक शीर्ष पैरेंट एक्ट होता है और दूसरे शीर्ष पर डेलीगेट लेजिसलेशन एवं सबसे ऊपर कॉन्स्टिट्यूशन होता है।

प्रत्यायोजित विधान के विकास के कारण

प्रत्यायोजित विधायन के बिकास के कारण

प्रत्यायोजित विधायन के विकास के पीछे कई कारण हैं, जिनमें प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं:

  1. कार्यभार का बंटवारा: विधायिका के पास समय और संसाधन सीमित होते हैं, और उन्हें बहुत सारे कानून बनाने होते हैं। प्रत्यायोजित विधायन के माध्यम से, विधायिका अपनी कुछ जिम्मेदारियों को कार्यपालिका या अन्य प्राधिकरणों को सौंप देती है, जिससे मुख्य मुद्दों पर ध्यान केंद्रित किया जा सके।
  2. तकनीकी और विशेषज्ञता की आवश्यकता: कुछ कानूनों के लिए अत्यधिक तकनीकी जानकारी या विशेषज्ञता की आवश्यकता होती है, जो कि विधायिका के पास नहीं हो सकती। ऐसे मामलों में, विशेषज्ञ प्राधिकरणों को नियम और उपनियम बनाने के लिए अधिकार देना आवश्यक होता है।
  3. लचीलापन और त्वरित कार्रवाई: बदलती परिस्थितियों में कानूनों में शीघ्रता से बदलाव की आवश्यकता हो सकती है। प्रत्यायोजित विधायन के माध्यम से, कार्यपालिका या संबंधित प्राधिकरण त्वरित बदलाव कर सकते हैं, जो कि विधायिका के माध्यम से करना संभव नहीं होता।
  4. स्थानीय और विशेष परिस्थितियों का समाधान: विभिन्न क्षेत्रों या विशिष्ट परिस्थितियों के लिए विशेष नियमों की आवश्यकता होती है। प्रत्यायोजित विधायन के माध्यम से, स्थानीय प्रशासन या विशेष प्राधिकरण को उन परिस्थितियों के अनुसार नियम बनाने की स्वतंत्रता दी जाती है।
  5. प्रायोगिक दृष्टिकोण: कुछ कानूनों को पहले प्रयोगात्मक आधार पर लागू किया जा सकता है और फिर उनकी प्रभावशीलता के आधार पर समायोजन किया जा सकता है। प्रत्यायोजित विधायन इस प्रायोगिक दृष्टिकोण को संभव बनाता है।
  6. विस्तृत और जटिल कानूनों का प्रबंधन: कई बार मुख्य कानून बहुत जटिल हो सकते हैं, और उनके सभी पहलुओं को विस्तार से विधायिका द्वारा संबोधित करना संभव नहीं होता। प्रत्यायोजित विधायन के माध्यम से, उन जटिलताओं का प्रबंधन किया जा सकता है।

इन कारणों से प्रत्यायोजित विधायन की आवश्यकता और उसका विकास हुआ है, जिससे कानून निर्माण की प्रक्रिया अधिक लचीली, विशेषज्ञता-आधारित और प्रभावी हो सकी है।

विधाई शक्ति के प्रत्यायोजन की सीमा क्या है।

विधाई शक्ति के प्रत्यायोजन (delegation of power) की सीमा संविधान, कानूनी प्रावधानों, और न्यायिक व्याख्याओं के तहत निर्धारित होती है। निम्नलिखित कुछ मुख्य सीमाएं हैं:

  1. संवैधानिक सीमा: कोई भी विदाई शक्ति जो संविधान के प्रावधानों के विरुद्ध है, उसे प्रत्यायोजित नहीं किया जा सकता। संविधान के मूल ढांचे का उल्लंघन करना असंवैधानिक होगा।
  2. महत्वपूर्ण कर्तव्यों का प्रत्यायोजन: उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय ने यह स्पष्ट किया है कि महत्वपूर्ण और मूलभूत कर्तव्यों को प्रत्यायोजित नहीं किया जा सकता, खासकर ऐसे कर्तव्य जिनमें नीतिगत निर्णय लेना शामिल है।
  3. कानूनी प्रावधानों की सीमा: यदि किसी कानून या अधिनियम में प्रत्यायोजन की अनुमति नहीं है, तो उस शक्ति को प्रत्यायोजित नहीं किया जा सकता।
  4. न्यायिक समीक्षा: प्रत्यायोजित की गई शक्ति का उपयोग न्यायिक समीक्षा के अधीन हो सकता है। यदि यह देखा जाता है कि प्रत्यायोजन असंवैधानिक या कानूनी रूप से अवैध है, तो न्यायालय उस प्रत्यायोजन को रद्द कर सकता है।
  5. सटीकता और विशिष्टता की आवश्यकता: शक्ति के प्रत्यायोजन के लिए स्पष्टता और विशिष्टता की आवश्यकता होती है। सामान्य या अस्पष्ट तरीके से शक्ति का प्रत्यायोजन नहीं किया जा सकता।

संक्षेप में, प्रत्यायोजन की सीमा संविधान, कानूनी प्रावधानों और न्यायालयों की व्याख्या के आधार पर निर्धारित होती है, और इसे किसी भी तरह से मूल संवैधानिक सिद्धांतों का उल्लंघन नहीं करना चाहिए।

प्रश्न  ///////ओप्रत्यायोजित विधान पर नियंत्रण कैसे किया जाता है

प्रत्यायोजित विधान पर नियंत्रण तीन मुख्य तरीकों से किया जाता है: पार्लियामेंट्री कंट्रोल (Parliamentary Control), जुडिशल कंट्रोल (Judicial Control), और प्रोसीजरल कंट्रोल (Procedural Control)। इन तीनों के माध्यम से यह सुनिश्चित किया जाता है कि प्रत्यायोजित विधान संविधान और अन्य कानूनों के अनुरूप हो, और कार्यपालिका का दुरुपयोग न हो। इनका विवरण इस प्रकार है:

1. पार्लियामेंट्री कंट्रोल (Parliamentary Control)

पार्लियामेंट्री कंट्रोल का उद्देश्य कार्यपालिका द्वारा बनाए गए प्रत्यायोजित विधान की जाँच और निगरानी करना है। इसके अंतर्गत निम्नलिखित प्रक्रियाएँ शामिल होती हैं:

  • लेखापरीक्षा (Scrutiny by Committees): संसद की विभिन्न समितियों जैसे कि लोक लेखा समिति, विनियमन समिति आदि द्वारा प्रत्यायोजित विधान की जाँच की जाती है।
  • प्रश्न और वाद-विवाद (Questions and Debates): संसद में सदस्य प्रश्न उठाते हैं और प्रत्यायोजित विधान पर चर्चा होती है।
  • स्वीकृति या अस्वीकृति (Approval or Rejection): संसद को अधिकार होता है कि वह प्रत्यायोजित विधान को स्वीकृत या अस्वीकृत कर सकती है। कुछ विधान संसद की मंजूरी के बिना प्रभावी नहीं हो सकते।

2. जुडिशल कंट्रोल (Judicial Control)

जुडिशल कंट्रोल का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि प्रत्यायोजित विधान संवैधानिक और वैधानिक सीमाओं के भीतर हो। इसके अंतर्गत निम्नलिखित प्रक्रियाएँ शामिल होती हैं:

  • न्यायिक समीक्षा (Judicial Review): अदालतें प्रत्यायोजित विधान की वैधता की समीक्षा कर सकती हैं। यदि कोई विधान संविधान के खिलाफ पाया जाता है, तो अदालत उसे निरस्त कर सकती है।
  • रिट (Writs): प्रभावित पक्ष अदालत में रिट याचिका दाखिल कर सकता है, जैसे कि मैंडमस (Mandamus), प्रोहिबिशन (Prohibition), सर्टिओरारी (Certiorari) आदि, जिससे अनुचित प्रत्यायोजित विधान को रोका जा सके।

3. प्रोसीजरल कंट्रोल (Procedural Control)

प्रोसीजरल कंट्रोल का उद्देश्य प्रत्यायोजित विधान बनाने की प्रक्रिया का पालन सुनिश्चित करना है। इसके अंतर्गत निम्नलिखित प्रक्रियाएँ शामिल होती हैं:

  • पब्लिकेशन (Publication): प्रत्यायोजित विधान को प्रकाशित किया जाना अनिवार्य होता है, ताकि जनता और संबंधित पक्ष उसे जान सकें और उसकी जांच कर सकें।
  • सहमति और राय (Consultation and Opinion): कुछ मामलों में, संबंधित हितधारकों से सलाह-मशविरा करना और उनकी राय लेना आवश्यक होता है।
  • सुनवाई और आपत्तियाँ (Hearings and Objections): कानून बनने से पहले आपत्तियों और सुझावों को सुनने का प्रावधान होता है।

इन नियंत्रण प्रक्रियाओं के माध्यम से प्रत्यायोजित विधान को संविधान, कानून, और नैतिकता के अनुरूप बनाए रखने का प्रयास किया जाता है।

प्रश्न। प्रत्यायोजित विधान का प्रकाशन

प्रत्यायोजित विधान का प्रकाशन

“प्रत्यायोजित विधान का प्रकाशन” (Publication of Delegated Legislation) एक विधायी प्रक्रिया है जिसमें संसद या विधानमंडल द्वारा स्वीकृत किसी कानून के तहत संबंधित अधिकारी या संस्था को नियम या उप-नियम बनाने का अधिकार दिया जाता है। इस प्रक्रिया के तहत बनाए गए नियमों और उप-नियमों को आम जनता और संबंधित पक्षों तक पहुँचाने के लिए प्रकाशित किया जाता है, ताकि उनके बारे में जानकारी मिल सके और उनका पालन सुनिश्चित किया जा सके।

इस प्रकार का प्रकाशन सरकारी गजट में किया जाता है, जिससे यह कानूनी रूप से मान्य हो जाता है। यह प्रक्रिया इसलिए आवश्यक होती है ताकि कानूनों के क्रियान्वयन में पारदर्शिता बनी रहे और जनता को यह पता हो कि किन नियमों और उप-नियमों का पालन करना अनिवार्य है

Case हरला वर्सेस राजस्थान केस स्टेट ऑफ़ महाराष्ट्र वर्सिज जॉर्ज कैसे और नरेंद्र कुमार वर्सेस यूनियन ऑफ इंडिया के केस में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट रूप से कहा है कि डेलीगेट लेजिसलेशन प्रत्यय ज्योतिष विधान का प्रकाशन प्रत्येक और प्रत्येक दशा में होना चाहिए और पैरेंट एक्ट के प्रकाशन की अपेक्षा करता हो या ना करता हूं

अब प्रश्न नहीं उठाता है कि ऐसी स्थिति में प्रकाशन किस तरीके से किया जाना चाहिए जॉर्ज के केस में सुप्रीम कोर्ट ने प्रत्यक्ष विधान का प्रकाशन किसी सामान्य तरीके से भी किया जाना चाहिए

केस इन एनर्जी टेस्ला सुब्रमण्यम के बाद में कहा गया कि प्रत्यक्ष योगी विधान ठीक उसी तरीके से प्रकाशित किया जाना चाहिए जिस तरीके से प्रकाशित करने की बातें करंट एक्ट में कही गई है इस मामले में यह अपेक्षा किया गया था कि नियमों को ऑफिशियल बजट में प्रकाशित किया जाए परंतु उन्हें जिला गजट में प्रकाशित किया गया था निर्णय में कोर्ट ने कहा प्रशासन उचित नहीं है ठीक इसी प्रकार गोविंद लाल वर्सेस एग्रीकल्चरल प्रोड्यूस मार्केटिंग कमेटी के केस में कहा गया कि यदि अधिसूचना ऑफिशियल बजट के साथ-साथ स्थानीय समाचार पत्र गुजराती में प्रकाशित किया जाना था क्या ऐसा प्रकाशन किया गया सही है निर्णय दिया गया कि गुजराती समाचार पत्र पर प्रकाशित नहीं किया गया था केवल ऑफिशियल बजट में ही प्रकाशित किया गया था कोर्ट ने गुजराती समाचार पत्र प्रकाशक को समुचित नहीं माना

प्रायोजित विधान Delegate legislations

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